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मतभेद हों, मनभेद नहीं

रिश्तों में टकराव की स्थिति जब बनती है तो मतभेद हो ही जाते हैं। फिर चाहे वह सहकर्मी से हों, किसी रिश्तेदार से या परिवार से, मतभेद को समझदारी से सुलझाना ज़रूरी है। ऐसा नहीं किया तो पुरानी बातें कब गांठ बनकर मनभेद में बदल जाएं, पता ही नहीं चलता।
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रिश्ते

मोनिका शर्मा
रिश्तों में टकराव की स्थिति जब बनती है तो मतभेद हो ही जाते हैं। फिर चाहे वह सहकर्मी से हों, किसी रिश्तेदार से या परिवार से, मतभेद को समझदारी से सुलझाना ज़रूरी है। ऐसा नहीं किया तो पुरानी बातें कब गांठ बनकर मनभेद में बदल जाएं, पता ही नहीं चलता।
सभी की राय का सम्मान
अपनों के बीच सभी को अपनी राय रखने का हक़ होना चाहिए। साथ ही बच्चे हों या बड़े, हर किसी के विचार सुनने और समझने की कोशिश भी जरूरी है। पारिवारिक मामला हो या सामाजिक जीवन से जुड़ा विषय। रिश्तों के ताने-बाने में बंधे लोगों में सभी के विचार अलग-अलग भले ही हों, उनको मान देना और कही जा रही बात को सुनना सबसे जरूरी है। हमारे घरों में आमतौर पर बच्चों के विचार इस अनदेखी का सबसे ज्यादा शिकार होते हैं। कई बार तो उनसे जुड़ी बातों पर ही उनके विचार नहीं सुने जाते। ऐसा नहीं होना चाहिए। किसी की राय को मानने के पहले कई बातों पर विचार करना होता है। लेकिन उससे पहले सभी की राय को मान देते हुए मन से सुनना जरूरी है। इससे रिश्तों में दरार नहीं आती।
परिपक्व सोच अपनाएं
दिलों में अंतर आ जाए तो रिश्तों में भी दूरियां आ जाती हैं। इसकी वजह कई बार अपनों के विचार न मिलना भी होता है। इसीलिए यह परिपक्वता स्वीकार्यता ज़रूरी है कि सभी एक विषय पर एक-सा नहीं सोचते। ऐसी परिपक्व सोच खुले दिल से सभी की राय को समझना भी आसान कर देती है। जिसके चलते ना अहम आड़े आता है और न ही अपनी बात मनवाने की जिद। साथ ही सहजता के साथ सभी पहलुओं पर सोचना भी आसान हो जाता है। मसला कोई भी हो, बेहतर विकल्प मिलते हैं। इसीलिए हर किसी के लिए यह समझना भी ज़रूरी है कि सामने वाले की हर बात, हर विचार गलत नहीं है। बस, उसकी सोच आपसे अलग है। इतना भर समझना रिश्तों को सहेजने की राह बन जाता है।
रिश्तों को सहेजने के लिए
रिश्तों को बचाये रखने के लिए भी मतभेद और मनभेद का अंतर समझना जरूरी है। यूं भी विचारों का विरोध या समर्थन कभी भी व्यक्तिगत रिश्तों पर हावी नहीं होना चाहिए। क्योंकि मन में दूरियां आ जाएं तो उन्हें पाटना मुश्किल हो जाता है। रिश्ता कोई भी हो उसमें ‘बॉस’ बनने का भाव नहीं चल सकता। इसीलिए सहमति हो या असहमति, सभी के विचारों को सुना जाना चाहिए। विचार थोपने के बजाय अपना नज़रिया समझाने और सामने वाले इनसान का नज़रिया समझने की कोशिश की जानी चाहिए। यह व्यक्तिगत रूप से किसी की सोच का सम्मान करने का मामला तो है ही, संबंधों की खुशनुमा बनाये रखने वाला भाव भी है जो रिश्तों को और मजबूती देता है और सम्मान और बराबरी का भाव लाता है।

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